सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पिछले अंक का सम्पादकीय... कहीं यह आजमाइश तो नहीं थी 'उस ज़हर के लिए?

पच्चीस साल हो गये हैं मगर उस रात की काली परछाईं फॉसिल्स की तरह भोपाल शहर के नक्शे पर ज्‍यों की त्यों नक्श है। मुआवजे मिले हैं मगर अपर्याप्त हैं, ग़ैर मुनासिब लोगों को मिले हैं, क्षेत्रों का विभाजन अतार्किक है .... आदि आदि। गरा यह कि राजनीति है, पक्षपात है, भ्रष्टाचार है।
दो-तीन दिसम्बर की दरमियानी भयावह और अभागी रात ने अब तक तीस हज़ार से यादा लोगों को लील लिया है। लाखों आज भी पीड़ित हैं या अपनी रोग-प्रतिरोधी क्षमता खो चुके हैं। मरने वाले केंसर, टीबी, दमा, कुपोषण से मरते बताये जाते हैं लेकिन यह नहीं बताया जाता कि उनमें रजिस्टेंस पॉवर था ही नहीं तब वे इन बीमारियों से कैसे लड़ते?
पच्चीस साल में राहतों से आहत लोगों की संख्या भी कम नहीं है। भोपाल में वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन 1985 में आयोजित हुआ था जिसमें एक नारा स्वीकृत हुआ था- 'नो हीरोशिमा-नो भोपाल' यानी इस धरती पर हम साम्रायवादी हादिसे फिर नहीं होने देंगे। यूनियन कार्बाइड अमेरिका की एक मल्टीनेशनल कंपनी थी जो 'सेविन' नामक कीटनाशक भोपाल में बनाती थी। एक हादिसा कुख्यात गैस कांड से पहले नेपथा प्लांट में आग लगने का भी हो चुका था। पत्रकार राजकुमार केसवानी ने अपने साप्ताहिक में चेतावनी दी थी कि भोपाल वालामुखी के मुहाने पर रखा हुआ है। उस रात जब सुरक्षा उपायों की अनदेखी से मिथाइल आइसो सायनायड गैस टंकी का वाल्व फटा तो वह वालामुखी ही साबित हुआ। उसने लोगों का जीवन हर लिया।
कवि राजेन्द्र अनुरागी की कविता में एक पंक्ति आती है -
कहीं यह आजमाइश तो नहीं थी
इस ज़हर के लिए?
कितनी गैस कांफी होती है
एक शहर के लिए?

यह सवाल काव्य-प्रश्न नहीं था, साइंस का, राजनीति का और साम्रायवाद की कुचालों से जुड़ा सवाल था। ब्रज बिहारी दीक्षित ने उस दौर में एक आल्हा लिखी थी- 'मिक आल्ह खण्ड उर्फ गैस कांड का करो 'बखान' नाम से। उसका अंश ग़ौर तलब है-
ज़हर हो गया फुल टंकी में, बाल फोड़ कर निकली गैस।
हाहाकार मचा बस्ती में, उधर प्रबंधक खाते तैस॥
फैली गैस हवा में मिलकर, भागे लोग घरों को छोड।
ऑंखों में मिर्ची सी लगती, दिखता नहीं किसी को मोड़॥
भागो-भागो की आवाज़ों का, उठा रात में भारी शोर।
साँसें कम होती जाती थीं, लोग लगाते जाते ज़ोर॥
कैसा बाप, कहाँ की माता, कैसी औरत, कैसे बाल।
अपने प्राणों की चिंता थी, पीछे-पीछे आता काल॥
गिरते-पड़ते, उठते-चलते, भागम-भागम-भागम भाग।
ऐसा लगता था बस्ती में कहीं लगी है भीषण आग॥
झुग्गी उजड़ी, छप्पर उजड़ा, उजड़ गया पूरा परिवार।
लाशों पर लाशें जब निकलीं, रोने लगा सकल संसार॥
मंत्री बैठ कार में भागे, भागे अफसर जीपें तान।
मरने वाले मरते जाते, सबको प्यारे अपने प्राण॥
टेलीफोन मौन साधे था, पुलिस प्रशासन पूरा ठप्प।
ऑंखों देखा हाल लिख रहा, समझ न लेना इसको गप॥
इसमें चश्मदीद हक़ीक़तें बयान की गई हैं। कलेक्टर का टेलीफोन तक कोई उठा नहीं रहा था। इस आल्हा की दो पंक्तियाँ अद्भुत ढंग से अनुरागी की कविता से मेल खाती हैं -
अमरीका के पिट्ठू बन कर भारत में करते व्यापार।
ज़हरीले प्रयोग करवाते कैसे हो, 'केमीकल वार॥'
केमीकल वार का ही संदर्भ अनुरागी ने दिया है। अमेरिका के बुश प्रशासन ने ब्रिटेन और नाटो देशों से मिलकर केवल इसलिए ईराक को नेस्तनाबूत कर दिया क्योंकि उसे शक था कि ईराक के पास केमीकल वार के हथियार हैं। यह सिरे से झूठ साबित हुआ। अमेरिका केवल शक के आधार पर एक मुल्क को तबाह कर सकता है लेकिन भारत में भोपाल की छाती पर तो केमीकल प्रहार हुआ था। यहां तो हजारों मारे गये थे। यह तो प्रमाणित है, बाबजूद इसके फैक्ट्री के आपराधिक मालिक एण्डरसन को अमेरिका ने भारत को मुकद्दमे के लिए भी नहीं सौंपा है। यही क्या साम्रायवादी न्याय है?
अरुण शिरढोणकर की एक कविता का अंश है-
मैंने अपनी आत्मा निकालकर
जूतों के सुकतल्लों में फिट कर दी है
अब जब भी चलूँगा
अपनी आत्मा को कुचलते हुए चलूँगा।
कवि शिरढोणकर ने तो प्रवृत्तिगत आत्मालोचना की है। हमारे प्रधान मंत्री ने तो दरहकीकत भारत के स्वाभिमान और आत्मा को अमेरिका के सुकतल्लों में फिट कर दिया है। हर स्वामिमानी भारतीय को लगता है कि अमेरिका जब भी चलता है, भारतीय आत्मा को कुचलते हुए चलता है। गैस-पीड़ित भोपाल में तो यह एहसास और भी तल्‍ख़ है। हमारे देश ने रिजेक्टेड तकनालौजी के उद्योग आमंत्रित किये हैं। मध्यप्रदेश में भी विदेशी निवेश के लिए मेले लगाये जाते हैं। निवेश के नक्शे में रायीय या राष्ट्रीय प्राथमिकता के चयन का किसी को ध्यान नहीं है न कोई जरूरत ही महसूस कर रहा है। भोपाल के अनुभव से सीख लेने की किसी को सुध नहीं है।
कवि भोपाल की चिंता करता है राजेश जोशी कहते है:-
क्या यह सुनने को बैठा रहूँ धरती पर
कि पालक मत खाओ। मैथी मत खाओ।
मत खाओ हरी सब्जियाँ!
राजेश जोशी से मिलता स्वर बाबा धरनीधर का भी है। वे गैस कांड के वनस्पतियों पर हुए प्रभाव को बताते हैं :-
पत्तों के साथ जल गई पेड़ों पे डालियाँ
फूलों के साथ बाग की रूठी खुशहालियाँ
खेतों में स्याह पड़ गईं सोने की बालियाँ
बरसों की दफन हो गईं ईदो दिवालियाँ
आगे फिर राजेश जोशी की कविता में भोपाल का दर्द उभरता है :-
हवा गुज़रती है बच्चों की कब्र को छूती हुई
और एक खरखराता हुआ शब्द गूँजता है
रुंधे गले से जैसे कोई बच्चा
आंखिरी बार पुकार रहा हो
माँ ...ऽ ऽ ऽ
अब यहाँ कोई नहीं रोता
(कोई नहीं रोता कविता से)
हमारे स्वप्न में अब कोई जगह नहीं
फलों और फूलों से लदे होने के
सपने के लिए
अब हमारी रात में- हमारी नींद में
सिर्फ मृत्यु घूमती है नंगे पाँव
दौड़ते भागते हाँफते
असमय मरते हैं बच्चे, औरतें, पुरूष निरपराध!
कोई कब तक- कब तक देख सकता है
अनवरत मरते, दम तोड़ते हज़ारों लोगों को हर रात।
इससे यादा कोई बिगाड़ भी क्या सकता है
किसी शहर का
अब मृत्यु से कभी नहीं डर पायेंगे हम
अब चाहकर भी कभी इस शहर से
नंफरत नहीं कर पायेंगे हम।
(इस शहर को छोड़कर)
मैं नहीं चाहता कि जब भी लूँ मैं अपने शहर का नाम
दूसरा पूछे- क्या हुआ था उस रात?
कैसे हुआ वह सब कुछ?
मुझे आज तक कोई नहीं मिला जिसने कहा हो
मैं हिरोशिमा से आया हूँ
मैं आया हूँ नागासाकी से!
क्या मुँह लेकर जाऊँ में दूसरों के सामने
किस मुँह से कहूँ कि मैं आया हूँ किस शहर से!
(मेरे शहर का नाम)
काश कि राजनीति को, अंधी और काली कमाई में जुटी तिजारत को, सत्ता को भी कवि की तरह से शर्म आये! शर्म आये सदी के स्वयंभू महानायक को जो एवर रेडी का विज्ञापन करते तनिक नहीं सोचता कि यह उसी कंपनी का प्रॉडेक्ट है जिसने लील लिये तीस हजार लोग भोपाल में। केवल लोग ही नहीं मारे गये। बाबा धरनीधर के हिसाब से :-
हर्फ, हर्फ ग़मज़दा हुआ कुरान भी
आंसुओं में गर्माया गीता पुरान भी
खामोशियों में घुल गई पूजा-अजान भी
दर-दर के जैसे हो गये दीनो इमान भी
देखा गया न जो कभी सोचा गया नहीं
दर्द को भी जी गई भोपाल की जमीं
खुदा करे ये हादसा गुज़रे न अब कहीं
शायद ही अगली पीढ़ियाँ इस पर करें यंकीं।
बिन आग के धुएँ से ये बस्ती ही जल गई,
वो एक रात कितने ही सूरज निगल गई।
§हसन फतहपुरी
इन्साँ का ख़ून पीके हुई सुर्खरू हवा,
झीलों का शहर मौत का गहवारा बन गया।
§आफ्ताब आरिफ
इस के बाद भी कहने को कुछ रह जाता है क्या?

नये अंक के साथ ये ब्‍लाग प्रारंभ हो जायेगा ।

सुख़नवर के नये अंक के साथ ये ब्‍लाग प्रारंभ हो जायेगा ।